वैदिक काल प्राचीन भारत इतिहास का प्रमुख आंग रहा है। परीक्षा के नजर से ये अंश बहोत ही महत्यपूर्ण है। ऋग्वैदिक काल से UPSC Exam, SSC Exam, राज्य सेवा आयोग, सिविल सेवा परीक्षा आदि में सीधे सवाल पूंछे जाते है। यह पोस्ट UPSC notes in Hindi, Ancient History notes in Hindi, Rigvedic period आदि को ध्यान में रखकर बनाई गयी है। आप किन अन्य विषय पर पोस्ट चाहते है हमे कमेंट करके बता सकते है।
वैदिक काल
कालक्रम की दृष्टि से वैदिक काल को दो भागों में बांटा गया है।
दोनो काल एक दूसरे से भिन्न हैं और दोनो का पाठ्यक्रम क्षेत्र भी विस्तृत है, इसीलिए आज हम इस आर्टिकल में केवल ऋग्वैदिक काल के विषय में विस्तार से चर्चा करेंगे। उत्तर वैदिक काल के बारे में हम अगले आर्टिकल में चर्चा करेंगे।
वैदिक काल का आगमन ही ऋग्वैदिक युग के साथ हुआ। इस काल का नाम ऋग्वैदिक काल इसीलिए पड़ा क्योंकि इस काल में ऋग्वेद की रचना हुई, जो हिंदू धर्म का प्रथम वेद है।
ऋग्वेद से ही हमको आर्यों के विषय में जानकारी प्राप्त होती है। ऋग्वेद के अलावा आर्यों के विषय में जानकारी के ज्यादा श्रोत नहीं है।
प्राप्त साक्ष्यों के अनुसार ऋग्वेद ई. पू. 1500 से ज्यादा पुराना नहीं है।
यहां पढ़े : Ancient History Notes आर्यों का आगमन
ऋग्वैदिक काल में कबीलाई प्रमुख ही प्रशासनिक अधिकारियों को निर्देश देता था, हालांकि राजा नामक पद की भी व्यवस्था थी लेकिन राजा को अन्य युग के राजाओं जैसे अधिकार नही थे। अगर हम आज के लोकतांत्रिक व्यवस्था से तुलना करें तो कबीलाई प्रमुख प्रधानमंत्री था और राजा राष्ट्रपति था जो केवल कुछ ही विशेष शक्तियों का प्रयोग कुछ विशेष परिस्थितियों में कर सकता है तथा वह प्रधानमंत्री अर्थात् कबीलाई प्रमुख को सलाह दे सकता है लेकिन प्रशासन की बागडोर प्रधानमंत्री अर्थात् कबीलाई प्रमुख के ही हाथों में रहेगी।
राजा का पद अनुवांशिक था तथा एक विशेष प्रकार की समिति उसका चुनाव करती थी और नियंत्रण में रखती थी। अन्य कालों की तरह राजा स्वच्छंदचारी नहीं हो सकता था, हालांकि उत्तर वैदिक काल में स्थिति एकदम से उलट गई।
ऋग्वैदिक काल में राजा अपनी जनजाति का प्रतिनिधित्व करता था। अपनी प्रजा की तरफ से युद्ध लड़ता था और बदले में बलि के रूप में कर लेता था। वह जनजाति के कल्याण के लिए देवताओं की पूजा करता था। बलि के रूप में फल, सब्जी, अनाज, दालें, ऊन, दैनिक प्रयोग की वस्तुएं और गाय दी जाती थी।
राजा के अलावा अन्य पदाधिकारियों की उपस्थिति के भी साक्ष्य मिलते हैं।
राजा के बाद सेनानी एक प्रमुख और शीर्ष पद था। सेनानी का काम युद्ध के समय राजा और जनजाति की रक्षा करना था इसके लिए वह तलवार, भाला आदि का प्रयोग करता था। किसी भी न्याय अधिकारी की उपस्थिति के प्रमाण नहीं मिलते। राजा पुरोहितों की सहायता से न्याय करता था। ऋग्वैदिक काल में दो पुरोहितों का वर्चस्व के प्रमाण मिलते हैं। उनमें से एक गुरु वशिष्ठ और दूसरे गुरु विश्वामित्र है। गुरु वशिष्ठ रूढ़ीवादी सोच के थे वही विश्वामित्र उदारवादी थे। विश्वामित्र ने आर्यों के कल्याण के लिए गायत्री मंत्र की रचना की थी।
आर्य समाज में भूमि संबंधित अधिकारी के भी प्रमाण मिलते हैं। इस अधिकारी को व्रजपति कहा जाता था। इनके परिवारों के प्रमुख ग्रामणीयों से युद्ध करने के प्रमाण मिलते हैं।
ग्रामणी ग्राम जो एक छोटे से कबीले को कहते थे के प्रमुख को कहते थे, लेकिन तदांतर में वे गांव के प्रमुख बन गए और व्रजपति के समान हो गए।
हालांकि इस काल में किसी स्थाई सेना के प्रमाण नहीं मिले हैं। इस काल में कोई व्यवस्थित प्रादेशिक प्रशासन नहीं था।
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सामाजिक संरचना का आधार परिवार था परंतु आदमी की पहचान उसके कबीले से होती थी। समाज की सबसे छोटी इकाई को जन कहा जाता था। कबीले को विस भी कहते थे। परिवार एक बड़ी संयुक्त इकाई थी। ऋग्वैदिक काल का समाज पितृसत्तात्मक था। वीर पुत्रों की प्राप्ति के लिए देवताओं से प्रार्थना की जाती थी।
ऋग्वेद में वर्ण शब्द का प्रयोग बार बार हुआ है जिससे प्रतीत होता है कि आर्य लोग श्वेत वर्ण के थे और यहां के निवासी श्याम वर्ण के। इससे ऋग्वैदिक काल में सामाजिक भेदभाव के होने के प्रमाण मिलता है। इस काल में लोगों को कर्म के आधार पर पहचान मिलती थी। धीरे धीरे कबिलाई समाज तीन समूहों में विभक्त हो गया – योद्धा, पुजारी और सामान्य लोग। ऋग्वैदिक काल खत्म होने तक शूद्र नामक वर्ग को उत्पत्ति हुई। शूद्र शब्द का उल्लेख भी ऋग्वेद में हुआ है।
उत्तर वैदिक काल की अपेक्षा इस काल में स्त्रियों की स्थिति अच्छी थी। स्त्रियां उच्च शिक्षा ग्रहण कर सकती थी। वाद विवाद में भाग ले सकती थी। ग्रंथों की रचना कर सकती थी। पति के साथ सभाओं में भाग ले सकती थी।
विधवा विवाह, स्वयंवर विवाह और बहुपति विवाह के उल्लेख मिले हैं, जबकि सती प्रथा, बहुपत्नी विवाह और बाल विवाह के उल्लेख नहीं मिलते हैं। आज के समाज की भांति ऋग्वैदिक समाज में विवाह की एक वैध आयु थी जो 16 से 17 वर्ष थी। इस काल में पुजारी वर्ग अपने आप को उदित करने में लगा था। पुजारी कबीलाई प्रमुखों की उनके दैनिक कार्यों में सहायता करके भेटस्वरूप गाय और दासी ले जाते थे। इस काल में गाय संपत्ति का सूचक मानी जाती थी इसीलिए गाय को चोरी सामान्य बात थी। इसीलिए इन चोरियों पर नजर रखने के लिए गुप्तचर रखे जाते थे। समाज ने शाकाहारी और मांसाहारी दोनो प्रकार के लोग पाए जाते थे।
ऋग्वैदिक लोगों को कृषि का विशेष ज्ञान था। वे लोग बुवाई, कटाई, छटाई और सिंचाई से परिचित थे। वे विभिन्न मौसमों से अवगत थे। कृषि के अलावा बढ़ई, रथ निर्माता, बुनकर, चर्मकार और कुम्हार आदि व्यवसाय का वर्णन ऋग्वेद में है। ऋग्वेद में अयास शब्द का उल्लेख है जिसका अर्थ ताबां या कांस्य होता है, अर्थात् ऋग्वैदिक समाज में धातुकर्म व्यवसाय भी जोरों पर था।
नियमित व्यापार के प्रमाण नहीं प्राप्त होते है। आर्य लोग शहर में नही अपितु सामान्य मिट्टी के घरों में रहते थे।
हाल ही में हरियाणा के भगवानपुर और पंजाब के तीन स्थलों से उत्तरवर्ती हड़प्पा कालीन मिट्टी के बर्तनों के साथ चित्रित भूरे बर्तन पाए गए हैं। भगवानपुर से प्राप्त सामग्री ई.पू. 1600-1000 के बीच की बताई जाती है। यही समय ऋग्वेद का भी है। भगवानपुर से 13 कमरे का मिट्टी का घर मिला है हालांकि इसका काल निर्धारण नहीं हो पाया है। यह एक बड़े काबिलाई परिवार या कबीलाई प्रमुख के घर का संकेत देता है। इसके अलावा मवेशियों की हड्डियां और घोड़ों की हड्डियां मिली हैं।
ऋग्वैदिक समाज प्रकृति के पुजारी था। वे पूजा बलि के रूप में करते थे, हालांकि उत्तर वैदिक काल में ये परिस्थितियां बदल गई थी।
ऋग्वैदिक समाज में सबसे महत्वपूर्ण देवता इंद्र थे जिनको पुरंदर कहा गया। ऋग्वेद में इंद्र द्वारा आर्यों के शत्रुओं को हराने का उल्लेख मिलता है, इसीलिए इंद्र को निवास इकाइयों का विनाशक कहा जाता है। इंद्र के लिए ऋग्वेद में 250 श्लोक समर्पित है। इनको वृष्टि देव माना गया हहै
दूसरे महत्वपूर्ण देवता अग्नि देव हैं, इनके लिए 200 श्लोक समर्पित हैं। माना जाता है कि अग्नि में होम की जाने वाली वस्तुएं धुआं के रूप में आकाश तक देवताओं के पास पहुंचती है। तीसरे महत्वपूर्ण देवता वरुण देव हैं जो जल के देवता हैं।
सोम को पौधों का देवता माना जाता था। ऋग्वेद में कई श्लोक में इन पौधों से इस पेय को तैयार करने की विधि की व्याख्या की गईं है।
इस काल में देवियों की भी पूजा होती है। इनमे से सबसे महत्वपूर्ण सरस्वती नदी है जिनके लिए ऋग्वेद में कई श्लोक समर्पित हैं। प्रार्थना और बलि पूजा करने का प्रमुख तरीका था।
इस समाज की एक बड़ी विशेष बात थी कि हर कबीला का अपना एक देवता था। लेकिन बलि के समय हर जनजाति के सदस्यों के द्वारा समूह में देवताओं की पूजा होती थी। अग्नि और इंद्र बलि के देवता थे।
ऋग्वैदिक काल के लोग अपने आध्यात्मिक उत्थान या मोक्ष के लिए देवताओं की पूजा नही करते थे अपितु वे बलि और प्रार्थना मुख्यतः बच्चों, पशु, भोजन, धन और स्वास्थ के लिए करते थे।
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