उत्तर वैदिक काल Post Vedic Period GK in Hindi

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उत्तर वैदिक काल

यह आर्यों के शासनकाल का दूसरा युग है। ऋग्वेद काल के बाद के समय को उत्तर वैदिक काल कहते हैं। इस युग के अन्य वेदों , उपनिषदों की रचना हुई। यह काल ऋग्वैदिक काल के विपरीत था। इस काल में आर्यों ने अपना राजनीतिक विस्तार किया और यमुना व गंगा के मैदानों पर अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया था। आर्यों ने डेक्कन में अपना अधिकार स्थापित कर लिया था। इस काल में ऋग्वैदिक काल के उल्टा स्वच्छंदचारी शासन देखने को मिला।

इस आर्टिकल में हम उत्तर वैदिक काल के विषय में विस्तार से चर्चा करेंगे एवं उसके आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक जीवन के बारे में विस्तार से चर्चा करेंगे।

समयसीमा:- ई.पू. 1000-600 

उत्तर वैदिक काल के महत्वपूर्ण स्रोत

कुछ महत्वपूर्ण स्रोतों के माध्यम से हम उत्तर वैदिक काल के विषय में विस्तार से चर्चा करेंगे –

उत्तर वैदिक काल के विषय में जानकारी हमको दो तरह के स्रोतों से प्राप्त होती है-

  1. पुरातात्विक स्रोत
  2. साहित्यिक स्रोत

पुरातात्विक स्रोत

उत्तर वैदिक कालीन प्रथम लौह साक्ष्य अतरंजीखेड़ा से प्राप्त होते हैं। यहां से सबसे ज्यादा मात्रा में लौह साक्ष्य मिलते हैं।

साहित्यिक स्रोत

इस काल में अन्य वेदों, उपनिषदों और ब्राह्मण ग्रंथों की रचना हुई, जिससे ब्राह्मणवाद को बल मिला। इस काल में 3 वेद, उपनिषद् और आरण्यक की रचना हुई।

सामवेद:-  साम का अर्थ है “गीत”। इस वेद की रचना भगवान शिव ने की थी। इस वेद की रचना के बाद से ऋग्वेद मंत्र गाने योग्य हो गए।

यजुर्वेद:-  यह एक कर्मकांडीय ग्रंथ है, इस वेद में यज्ञों की विधियों का उल्लेख है।

अथर्वेद:-  यह एकमात्र ऐसा वेद है, जिसमें अनार्यो का भी वर्णन है। इस वेद की रचना महर्षियों द्वारा किया गया है तथा संकलन महर्षि कृष्ण व्यास द्वैपाजन जी ने किया था। इस वेद को अपेक्षाकृत कम महत्व दिया जाता है।

उपनिषद्:- इसमें ईश्वर और आत्मा के संबंध की बातें वर्णित हैं। यह कर्मकांडों का विरोध करता है और कालांतर में यही भक्ति आंदोलन के जन्म का कारण बना।

उत्तर वैदिक काल में धार्मिक जीवन

इस काल में धार्मिक जीवन बड़ा ही कर्मकांडी हो गया था। ऋग्वैदिक काल में लोग प्रकृति के पुजारी थे और निस्वार्थ भाव से पूजन का कार्य करते थे। पूजा का मुख्य उद्देश्य संतान प्राप्ति और प्रजा का सुख था, वहीं उत्तर वैदिक काल में ये स्थिति एकदम से उलट गई अब रहस्यवाद और मोक्ष की प्राप्ति ही पूजा की मुख्य वजह थी। वैदिक मंत्रों को संहिता कहा जाता था। अब समाज बहुदेववादी हो गया। जटिलता और कर्मकांड इस काल के पर्यायवाची हो गए।

इस काल में ऋग्वैदिक कालीन देवताओं (इंद्र और अग्नि) की महत्ता अब पहले जैसे नहीं रही। प्रजापति जो सृष्टि के निर्माता माने जाते हैं, उनको सर्वोच्च स्थान मिला। ऋग्वैदिक कालीन पशुओं के देवता को इस काल में शूद्रों का देवता माना जाने लगा। प्रतीक चिन्हों की पूजा होने लगी। विष्णु को संरक्षक का स्थान दिया गया। उत्तर वैदिक काल में एक नई विचारधारा की शुरुआत हुई, जिसको ज्ञानवादी विचारधारा कहते हैं।

ऋग्वैदिक काल में यज्ञ अत्यंत सरल और कम खर्चीले होते थे, जिनको करने में एक साधारण व्यक्ति भी समर्थ था। उत्तर वैदिक काल में यज्ञों की संख्या और आकार बड़ी हो गई जिससे बहुत सारे पुरोहितों की आवश्यकता होने लगी, फलस्वरूप ब्राह्मणों का समाज में कद और बढ़ गया। अब यज्ञ साधारण लोगों की बस की बात नहीं थी, केवल राजा और धनाढ्य लोग ही यज्ञ करवा सकते थे।

इस काल में यज्ञ की महत्ता इतनी बढ़ गई कि यज्ञ को ही देवता का स्थान मिलने लगा। विभिन्न प्रकार के नए नए यज्ञों की शुरुआत हुई जैसे: राजसूय यज्ञ, अश्वमेध यज्ञ। उत्तर वैदिक काल में यज्ञ का मुख्य उद्देश्य भौतिक पदार्थों की प्राप्ति एवं मृत्यु के बाद स्वर्ग की प्राप्ति माना गया था। ऋग्वैदिक काल में पशुओं विशेषकर गायों की अत्यंत महत्ता थी, वहीं उत्तर वैदिक काल में कर्मकांड का प्रचार इतना बढ़ गया कि बलि प्रथा की शुरुआत हुई, फलस्वरूप राज्यों में मवेशियों की मात्रा कम होने लगी और किसानों की स्थिति बहुत दयनीय हो गई।

उत्तर वैदिक काल में आर्थिक जीवन

कृषि

ऋग्वैदिक काल की तरह उत्तर वैदिक काल में भी कृषि मुख्य व्यवसाय बना रहा। हल के प्रयोग से कृषि में अपूर्व विकास हुआ जिससे अन्य उद्योगों को भी मदद मिली। गाय के गोबर को उर्वरक खाद के रूप में प्रयोग के साक्ष्य मिलते हैं। इस काल में अनेक तरह की दलहनी फसलों का उत्पादन हुआ।

पशुपालन

इस काल में गायों के महत्व में वृद्धि हुई। बिना गाय के घर निरर्थक माना जाता था। समाज में गाय को अति पवित्र माना जाता था और गायों की चोरी आम बात थी। इस काल में गायों का अपहरण प्रतिष्ठा का सूचक माना गया। गायों के स्वास्थ्य के लिए अथर्ववेद में प्रार्थना की गई है। ऊट और गधा का महत्व भी बढ़ गया हालांकि बलि प्रथा के शुरुआत होने से मवेशियों में कमी आई कालांतर में यह भी भक्ति आंदोलन का एक कारण बना।

उद्योग धंधा

इस काल में अनेक शिल्प का उदय हुआ। वस्तु विनिमय गाय के द्वारा होता था। उत्तर वैदिक काल में मुद्रा का प्रचलन शुरू हो गया था लेकिन वस्तु विनिमय ही व्यापार का माध्यम था। कई तरह के व्यापारिक संगठनों का उदय हुआ।

वस्त्र निर्माण, धातुकर्म, शस्त्र निर्माण, नाई, कर्मकार आदि प्रचलित शिल्पों में से थे।

निष्क, सतनाम, पाद, कृष्णल आदि नाप तौल की इकाइयां थी।

उत्तर वैदिक काल में सामाजिक जीवन

इस काल में समाज 4 वर्णों में विभक्त था- ब्राह्मण, राजन्य, वैश्य, शूद्र। यज्ञों की महत्ता बढ़ने से ब्राह्मणों का वर्चस्व भी बढ़ गया था इससे राजन्य वर्ग को अपने वर्चस्व की चिंता होने लगी थी। वैश्यों की स्थिति में सुधार हुआ था लेकिन शूद्रों की स्थिति बहुत दयनीय हो गई थी। उनके साथ दास जैसे व्यवहार किया जाता था।

हालांकि इस काल का भोजन सरल और साधारण था। पेय पदार्थों में सुरा का प्रयोग होता था।

स्त्रियां भी काम करती थी हालांकि उनका महत्व ऋग्वैदिक काल की अपेक्षा कम हो गया था। स्त्रियां अब शादी के बाद उच्च शिक्षा नही ग्रहण कर सकती थी। बहुविवाह, विधवा विवाह और बाल विवाह आदि प्रथाए प्रचलित थी। स्त्रियां ऋग्वैदिक काल की तरह वाद विवाद में भाग नहीं ले सकती थी। बेटियों की जन्म से खिन्नता होती थी।

अब भी आमोद प्रमोद का मुख्य साधन आखेट और घुड़दौड़ था। पांसे का खेल प्रचलित था। नृत्य अब भी प्रचलित था। स्त्रियां और पुरुष साथ में नृत्य करते थे।

उत्तर वैदिक काल में राजनीतिक जीवन

इस काल में आर्यों ने अपना राजनीतिक विस्तार कर लिया। हालांकि कबीलों का महत्व समाप्त होने से छोटे छोटे राज्यों का उदय हुआ फलस्वरूप राजाओं की शक्ति में वृद्धि हुई और अब राजा को दैवीय शक्तियों का स्वामी कहा जाने लगा। राजा को नियंत्रित करने वाली समिति का भी महत्व खत्म हो गया।

कर की एक संगठित प्रणाली कर दी गई और भागधूक नामक अधिकारी कर लेता था। अब कर की मात्रा निश्चित हो गई और 1/16 भाग कर के रूप में लिया जाता था।

राजा के परिवार के लोग भी प्रशासनिक कार्य करने लगे। एक न्याय अधिकारी की उपस्थिति का वर्णन है। सेनापति का कार्यभार पहले जैसा ही रहा।

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