हड़प्पा सभ्यता या सिंधु घाटी सभ्यता प्रतियोगी परीक्षाओं की दृष्टि से बहोत अधिक महत्यपूर्ण है। इस भाग से UPSC, राज्य लोक सेवा आयोग, Bank exam आदि परीक्षाओं में सीधे सवाल पेपर में आते है। यह पोस्ट Indus valley civilization in Hindi, Ancient History notes in Hindi व UPSC notes in Hindi रखकर बनायीं गयी है। आप किस अन्य टॉपिक पर पोस्ट चाहते है इस बारे में हमे कमेंट करके बता सकते है।
व्यवस्थित जीवन की शुरुआत नव पाषाण युग से हो गई थी। नव पाषाण युग खानाबदोस जीवन से मुक्ति का युग था, हालांकि कुछ क्षेत्रों मे अब भी खानाबदोस जिंदगी थी। नव पाषाण युग के बाद ताम्र पाषाण युग आया जिसमें मनुष्य ने पहली बार धातु का उपयोग किया। ताम्र पाषाण युग से पहले मनुष्य पत्थर के औजारों का प्रयोग करता था। ताम्र पाषाण युग में ये स्थिति बदल गई। अब मनुष्य तांबे के औजार का प्रयोग करता था।
ये मानवता के क्षेत्र में एक क्रांतिकारी परिवर्तन था। कृषि का विकास भी एक प्रमुख ताम्र पाषाण कालीन विशेषता है। अब मनुष्य मछली और अन्य जानवरों का शिकार छोड़कर एक स्थाई जीवन जीने लगा। विभिन्न प्रकार के अनाजों का उत्पादन किया। अनाजों के अत्यधिक उत्पादन से अन्न संग्रहण की आवश्यकता हुई जिससे खाद्य भंडारण के लिए बड़े बड़े ग्रहों की स्थापना हुई।
ताम्र पाषाण युग में सर्वप्रथम ताबें का प्रयोग किया गया। ताम्र पाषाण युग के बाद हड़प्पा सभ्यता का विकास हुआ हालांकि भारत के कुछ हिस्सों के ताम्र पाषाण संस्कृति हड़प्पा संस्कृति के बाद तक जारी रही। पश्चिमोत्तर भारत के एक बड़े से भूभाग पर तीसरी व दूसरी सहस्राब्दी में विद्यमान थी। हड़प्पा संस्कृति भारतीय उपमहाद्वीप की प्रथम नगरीय सभ्यता थी।
हड़प्पा संस्कृति को कांस्य संस्कृति भी कहते है क्योंकि इस युग में कांस्य का उपयोग अधिकाधिक हुआ। इसको सिंधु घाटी सभ्यता भी कहते हैं क्योंकि इस सभ्यता का विकास सिंधु नदी के किनारे हुआ।
इसका विकास सिन्धु और घघ्घर/हकड़ा (प्राचीन सरस्वती) के किनारे हुआ। हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, कालीबंगा, लोथल, धोलावीरा और राखीगढ़ी इसके प्रमुख केन्द्र थे।
इसको हड़प्पा संस्कृति भी कहतें हैं क्योंकि यह सभ्यता पहली बार सन् 1921 में पाकिस्तान के हड़प्पा में खोजी गई।
समयसीमा:– सम्मानित पत्रिका नेचर में प्रकाशित शोध के अनुसार यह सभ्यता कम से कम 8,000 वर्ष पुरानी है।
1826 में चार्ल्स मैसेन ने पहली बार इस पुरानी सभ्यता को खोजा।
1861 में एलेक्जेण्डर कनिंघम के निर्देशन में भारतीय पुरातत्व विभाग की स्थापना हुई।
सिंधु घाटी सभ्यता भारतीय उपमहाद्वीप में उत्तर पश्चिम भाग में विकसित हुई।
इसका विकास मुख्यतः सिंध और पंजाब में हुआ। वहां से ये दक्षिण और पूर्व की ओर फैली।
हड़प्पा संस्कृति पंजाब, हरियाणा, सिंध, बलूचिस्तान, गुजरात, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किनारे थी। यह उत्तर में शिवालिक से दक्षिण में अरब समुद्र तक और बलूचिस्तान के मकरन तट से उत्तर पूर्व में मेरठ तक फैली।
पूरे उपमहाद्वीप में अभी तक 2800 हड़प्पा स्थलों की खोज हुई है। दिसम्बर 2014 में भिरड़ाणा को सिन्धु घाटी सभ्यता का अब तक का खोजा गया सबसे प्राचीन नगर माना गया है।
NOTE:- नए शोध में सिन्धु घाटी सभ्यता से भगवान शिव और नाग के प्रमाण मिले है उस आधार पर कहा गया है कि यह सभ्यता निषाद जाति भील से सम्बन्धित रही होगी।
हड़प्पा सभ्यता भारतीय उपमहाद्वीप की प्रथम नगरीय सभ्यता थी। इसकी कुछ विशेषताएं इस सभ्यता को एक अलग श्रेणी में ला देती है।
इस सभ्यता की निम्न प्रमुख विशेषताएं हैं-
हड़प्पा संस्कृति की पहचान इसकी नियोजित शहर प्रणाली से होती है। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो सम्भवतः शासक वर्ग द्वारा कब्जाया गया था। प्रत्येक नगर में दुर्ग के बाहर एक उससे निम्न स्तर का शहर था जहाँ ईंटों के मकानों में सामान्य लोग रहते थे। इन नगर भवनों के बारे में विशेष बात ये थी कि ये जाल की तरह विन्यस्त थे यानि सड़के एक दूसरे को समकोण पर काटती थीं और नगर अनेक आयताकार खण्डों में विभक्त हो जाता था। ये बात सभी सिन्धु बस्तियों पर लागू होती थीं चाहे वे छोटी हों या बड़ी। हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो के भवन बड़े होते थे। वहाँ के स्मारक इस बात के प्रमाण हैं कि वहाँ के शासक मजदूर जुटाने और कर-संग्रह में परम कुशल थे।
मोहनजोदड़ो से खुदाई में निकला स्नानागार पूरी हड़प्पा सभ्यता की अब तक की सबसे महत्वपूर्ण खोज है। यह स्नानागार सार्वजनिक था। इस स्नानागार में तालाब हैं, जो गढ़ों के टीलों में स्थित है। यह ईटों की सबसे खूबसूरत कलाकारी है। यह 11.88 मीटर लम्बा, 7.01 मीटर चौड़ा और 2.43 मीटर गहरा है। दोनो सिरों पर तल तक जाने की सीढ़ियाँ लगी हैं। बगल में कपड़े बदलने के कमरे हैं। स्नानागार का फर्श पकी ईंटों का बना है। पास के कमरे में एक बड़ा सा कुआँ है जिसका पानी निकाल कर होज़ में डाला जाता था। हौज़ के कोने में एक निर्गम है, जिससे पानी बहकर नाले में जाता था। ऐसा माना जाता है कि यह विशाल स्नानागार धर्मानुष्ठान सम्बन्धी स्नान के लिए बना होगा जो भारत में पारम्परिक रूप से धार्मिक कार्यों के लिए आवश्यक रहा है।
मोहन जोदड़ो की सबसे बड़ा संरचना है – अनाज रखने का कमरा, जो 45.71 मीटर लम्बा और 15.23 मीटर चौड़ा है। हड़प्पा के दुर्ग में छः कमरे मिले हैं, जो ईंटों के चबूतरे पर दो पक्तियों में खड़े हैं। हर एक कमरा 15.23 मी॰ लम्बा तथा 6.09 मी॰ चौड़ा है और नदी के किनारे से कुछ एक मीटर की दूरी पर है।
हड़प्पा के अन्नागारो के दक्षिण में ईटों के कामचलाउ चबुतरो की श्रृंखला पाई गई है। यह संभवतः अनाज तैयार करने के लिए बनाए गए थे, क्योंकि इनकी फर्श की दरारों में से गेंहू और जौ के दाने मिले हैं। हड़प्पा में दो कमरों वाले बैरक भी मिले हैं जो शायद मजदूरों के रहने के लिए बने थे। कालीबंगां में भी नगर के दक्षिण भाग में ईंटों के चबूतरे बने हैं जो शायद कोठारों के लिए बने होंगे।
हड़प्पा संस्कृति के नगरों में ईंट का इस्तेमाल एक विशेष बात है, क्योंकि समकालीन मेसोपेटामिया में पक्की ईंटों का प्रयोग मिलता तो है पर इतने बड़े पैमाने पर नहीं जितना सिन्धु घाटी सभ्यता में। मोहन जोदड़ो की जल निकास प्रणाली अद्भुत थी। लगभग हर नगर के हर छोटे या बड़े मकान में प्रांगण और स्नानागार होता था। कालीबंगा के अनेक घरों में अपने-अपने कुएँ थे। घरों का पानी बहकर सड़कों तक आता जहाँ इनके नीचे नालियाँ बनी थीं।
सिन्धु घाटी सभ्यता के लोग गेंहू, जौ, राई, मटर, ज्वार आदि अनाज पैदा करते थे। वे दो किस्म की गेँहू पैदा करते थे। इसके अलावा वे तिल और सरसों भी उपजाते थे। सबसे पहले कपास भी यहीं पैदा की गई। इसी के नाम पर यूनान के लोग इस सिण्डन कहने लगे। हड़प्पा एक कृषि प्रधान संस्कृति थी पर यहाँ के लोग पशुपालन भी करते थे। बैल-गाय, भैंस, बकरी, भेड़ और सूअर पाला जाता था। हड़प्पाई लोगों को हाथी तथा गैंडे का ज्ञान था।
आज के मुकाबले सिन्धु प्रदेश पूर्व में बहुत उपजाऊ था। सिन्धु की उर्वरता का एक कारण सिन्धु नदी से प्रतिवर्ष आने वाली बाढ़ भी थी। गाँव की रक्षा के लिए खड़ी पकी ईंट की दीवार इंगित करती है बाढ़ हर साल आती थी। यहाँ के लोग बाढ़ के उतर जाने के बाद नवंबर के महीने में बाढ़ वाले मैदानों में बीज बो देते थे और अगली बाढ़ के आने से पहले अप्रैल के महीने में गेहूँ और जौ की फ़सल काट लेते थे। यहाँ कोई फावड़ा या फाल नहीं मिला हइन लोगों को घोड़े और लोहे की जानकारी नहीं थी। हड़पपा के लोग ताँबा खेतडी (राजस्थान) तथा बलूचिस्तान से प्राप्त करते थे, व सोना कर्नाटक तथा अफगानिस्तान से प्राप्त करते थे |
मिट्टी के बर्तन बनाने में ये लोग बहुत कुशल थे। मिट्टी के बर्तनों पर काले रंग से भिन्न-भिन्न प्रकार के चित्र बनाये जाते थे। कपड़ा बनाने का व्यवसाय उन्नभी निर्यात होता था। जौहरी का काम भी उन्नत अवस्था में था। मनके और ताबीज बनाने का कार्य भी लोकप्रिय था, अभी तक लोहे की कोई वस्तु नहीं मिली है। अतः सिद्ध होता है कि इन्हें लोहे का ज्ञान नहीं था। यहां आपसी व्यापार प्रचलित था, लोग आपस में पत्थर, धातु शल्क (हड्डी) आदि का व्यापार करते थे। वे चक्के से परिचित थे और सम्भवतः आजकल के इक्के (रथ) जैसा कोई वाहन प्रयोग करते थे।
ये अफ़ग़ानिस्तान और ईरान (फ़ारस) से व्यापार करते थे। हड़प्पा संस्कृति के लोगों ने उत्तरी अफ़ग़ानिस्तान में एक व्यापारिक कालोनी की स्थापना की थी, जिससे मध्य एशिया के साथ व्यापार करने में मदद मिली।
बहुत सी हड़प्पाई मुहर मेसोपोटामिया में मिली हैं जिनसे लगता है कि मेसोपोटामिया से भी उनका व्यापार सम्बन्ध था। मेसोपोटामिया के दस्तावेजों में ई. पू. 2300 के आस पास मेलुहा के साथ व्यापार के प्रमाण मिले हैं साथ ही दो मध्यवर्ती व्यापार केन्द्रों का भी उल्लेख मिलता है – दिलमुन और मकन दिलमुन की पहचान शायद फ़ारस की खाड़ी के बहरीन के की जा सकती है।
हड़प्पा के लोग पत्थर के औजारों का इस्तेमाल करते थे लेकिन वे कांस्य के इस्तेमाल से भी परिचित थे। वे कभी कभी तांबे के साथ आर्सेनिक का मिश्रण करते थे।
हड़प्पा में आसानी से टिन और तांबे की कमी थी इसीलिए हड़प्पा में कांस्य के बर्तन और औजार नही मिले। हड़प्पा स्थलों से मिले कांस्य उपकरण और हथियारों में कुछ प्रतिशत में टिन भी मिले है।
प्राप्त साक्ष्यों से यही प्रतीत होता है कि हड़प्पा समाज कांस्य कारीगरों का एक महत्वपूर्ण समूह था। उन्होंने मूर्तियों, बर्तनों और हथियारों का इस्तेमाल किया।
मोहनजोदड़ो से एक बुने हुए कपास का टुकड़ा मिला है। धुनाई यंत्र का उपयोग कताई के लिए किया गया था। बुनकर ऊन और कपास के कपड़े का इस्तेमाल और निर्माण करते थे। ईट की विशाल संरचना मिली है जिससे यही प्रतीत होता है कि हड़प्पा समाज में एक राजमिस्त्री नाम का वर्ग रहता था। नाव निर्माण का व्यापार होता था। मुहर और टेराकोटा मूर्तियों का निर्माण उच्च शिखर में था। सोनार वर्ग का अस्तित्व था। हड़प्पा के लोग मटका निर्माण के विशेषज्ञ थे। कुम्हार के पहियों का इस्तेमाल होता था। चमकदार बर्तनों का निर्माण होता था।
प्राप्त साक्ष्यों से पता चलता है कि हड़प्पा समाज में केवल दो ही इलाकों को शहर की मान्यता मिली थी। हड़प्पाई समाज चार वर्णों पर आधारित था- योद्धा, विद्वान, व्यापारी और श्रमिक। यहाँ के लोगों के वस्त्र सादे तथा कढ़ाईदार दोनों होते थे। मोहनजोदड़ो की प्रसिद्ध योगी की मूर्ति में तिपतिया साल, कढ़ाई का उत्तम उदाहरण है। खुदाई से एक सुई प्राप्त हुई है जिससे पता चलता है कि हड़प्पा सभ्यता के लोग वस्त्रों को सिलना जानते थे।
इस सभ्यता के लोग आभूषण के शौकीन थे। हड़प्पा के लोग हाथी दात, बहुमूल्य मणि, हड्डी और शंख से आभूषण बनाते थे। ये लोग मनोरंजन के शौकीन थे, नर्तकी की एक विशाल कांस्य की मूर्ति इस बात का सूचक है। पांसा इस युग का प्रमुख खेल था। गढ़ में शासक वर्ग रहता था, बीच के आवास में नौकरशाही और मध्यमवर्गीय परिवार रहते थे और सबसे निचले स्थान में आम लोग रहते थे। इससे पता चलता है कि हड़प्पा संस्कृति में सामाजिक भेदभाव की शुरुआत हो चुकी थी।
हड़प्पा समाज में संभवतः गढ़ ही सत्ता का केंद्र था। क्षेत्र के मध्य में नौकरशाहों की गद्दी होती थी। यहाँ मुख्य रूप से चार प्रजातियों: भूमध्यसागरीय, प्रोटोऑस्ट्रेलॉयड, मंगोलॉयड और अल्पाइन प्रजाति के लोग रहते थे जिनमें भूमध्यसागरीय प्रजाति के लोग सर्वाधिक थे।
मोहन जोदड़ो का विशाल अन्नागार ही खजाना या राजकोष था। कर के रूप में अनाज लिया जाता था। किलेबंदी कई शहरों की मुख्य विशेषता थी। हड़प्पा समाज में किसी स्थाई सेना के साक्ष्य नहीं मिले हैं। सुरकोटदा में बर्तनो में सैनिकों के चित्रण मिले है। हड़प्पा से एक बोतल में काजल के साक्ष्य, चन्हुदड़ो से लिपिस्टिक, धौलावीरा से मिट्टी का कंघा मिला है। तांबे एवं कांसे के उस्तरे के साक्ष्य से ज्ञात होता है कि पुरुष दाढ़ी भी बनाते थे। अंत्येष्टि में पूर्ण समाधिकरण सर्वाधिक प्रचलित था जबकि आंशिक समाधिकरण एवं दाह संस्कार का भी चलन था।
हड़प्पा स्थल में किसी मंदिर के साक्ष्य नहीं मिले है। मोहन जोदड़ो के स्नानागार के अलावा कोई और धार्मिक ढांचा नही मिला है। हड़प्पा समाज व्यापारियों द्वारा संचालित किया जाता था। हड़प्पा से कोई बड़ा हथियार नहीं मिला है।
हड़प्पा में महिलाओं की टेराकोटा की मूर्तियां बाहुल्य मात्रा में मिली हैं इसके अलावा एक मूर्ति में एक महिला के भ्रूण से एक पौधे को उगते हुए दिखाया गया था। मातृदेवी की पूजा एवं स्त्री मृण्मूर्तियों की संख्या देखते हुए अनुमान किया जाता है कि हड़प्पाई समाज मातृसत्तात्मक था। लोथल, कालीबंगा आदि जगहों पर हवन कुण्ड मिले है जो की उनके वैदिक होने का प्रमाण है। यहाँ स्वास्तिक के चित्र भी मिले है।
हड़प्पा समाज में नर देवता भी पूजे जाते थे। प्राप्त साक्ष्यों के अनुसार मुहरों में नर देवता का अंकन मिला है। इस नर देवता के तीन सिर हैं। नर देवता योगी की मुद्रा में है। इस देवता के पास एक हाथी, एक शेर, एक गैंडा और सिंहासन के नीचे एक भैंस है। पैर के बगल में दो हिरण है। इस प्रकार हमें पुरुष लिंग पूजा देखने को मिलती है।
सिंधु घाटी सभ्यता के लोग प्रकृति के पुजारी थे। खुदाई से एक मुहर मिली है, जिसमे पीपल की शाखाओं के बीच एक देवता का चित्र मिलता है। हड़प्पा के मुहरों में जानवरों के चित्र मिलते हैं। उनमें सबसे महत्वपूर्ण एक सींग वाला जानवर था। उसके बाद कूबड़ वाले बैल की पूजा होती है, हालांकि सिंधु सभ्यता वालो ने देवताओं को मंदिर में नही रखा। उन्होंने देवताओं की पूजा मनुष्य, पशु और पौधों के रूप में की।
हड़प्पा स्थलों से बड़ी मात्रा में ताबीज मिले हैं जो इस बात का साक्ष्य देते हैं कि सिंधु घाटी के लोग अंधविश्वास और भूत प्रेत में विश्वास करते थे।
सर्वप्रथम 1853 में सिंधु लिपि का साक्ष्य प्राप्त हुआ था। 1923 तक पूरी लिपि प्रकाश में आई, किंतु वह अभी तक पढ़ी नहीं जा सकी है। हड़प्पाई लिपि एक भाव चित्राक्षर लिपि है। हड़प्पा के अधिकांश अभिलेख मुहर पर दर्ज थे, जिनमे शब्दों की मात्रा नगण्य के बराबर थी।
हड़प्पा स्थलों से प्राप्त अभिलेख से पता चलता है कि हड़प्पा सभ्यता के लोग मापन की क्रिया से परिचित थे। प्राप्त साक्ष्यों के अनुसार वे मापन के लिए 16 या उसके गुणकों का प्रयोग करते थे।
अभी तक प्राप्त बर्तनों के नमूनों से यही पता चलता है कि वे लाल रंग के बर्तनों का निर्माण और उपयोग करते थे। वे बर्तनों को अलग अलग डिजाइन से पेंट करते थे। ये लोग बर्तनों में प्रायः पेड़ों, वृत्तों और पुरुषों के चित्र बनाते थे।
अब तक लगभग 2000 मुहर प्राप्त हुई है, इनमे से अधिकांश में एक सींग वाले पशु, भैंस, बाघ, गैंडे, बकरिया, हाथी, हिरण और मगरमच्छ की छवियां मिली है। ये मुहरे एक प्रकार के चमकदार पदार्थ की बनी होती थी। ये शक्ति के प्रतीक के रूप में प्रयुक्त होती थी। इनको ताबीज के रूप में प्रयोग किया जाता था। सिंधु सभ्यता की मुहरों पर ऊँट तथा घोड़े का भी चित्रण नहीं है जबकि कालीबंगा से ऊँट की हड्डियाँ तथा लोथल से घोड़े का जबड़ा मिला है।
अब तक करीब 2000 से ज्यादा साक्ष्य मिले हैं। भारतीय उपमहाद्वीप से अलग अलग जगहों से खुदाई में विभिन्न प्रकार के चीजे मिली हैं।
मोहनजोदड़ो
यहां की मिट्टी बड़ी उपजाऊ है इसीलिए इसको “सिंध का बाग” कहते हैं।
मोहनजोदड़ो से प्रसिद्ध योगी की मूर्ति में तिपतिया साल, कढ़ाई, चार कोने वाले तारे के अंकन वाला एक बालों का पिन एवं चांदी की अंडाकार चूड़ियाँ, ईंटों से बने दो अधूरे गेमबोर्ड, मिट्टी से निर्मित हल, कांस्य की नर्तकी, सूती कपडे के अवशेष, सीप का बना मानक बाट , पानी का जहाज, हाथी का कपाल, शिलाजीत, गाड़ी के पहिए, मेसोपोटामिया की मुहरें, पशुपति की मुद्रा, हाथीदात से बना तराजू आदि ।
हड़प्पा
एक बोतल में काजल, अन्नागार, गेहूं की भूसी, स्त्री के गर्भ से निकलता हुआ पौधा , मटर और तिल की खेती के साक्ष्य, खरगोश की चित्र वाली मुद्रा, लकड़ी का हल, ठोस पहिए वाली गाड़ी, कब्रिस्तान आदि।
लोथल
फारस की मुहर, धान और बाजरा की खेती के साक्ष्य, आटा चक्की, मनके का कारखाना, कुत्ते की मूर्ति, बकरी की हड्डी और गोदी के प्रमाण आदि।
चंद्रहूडो
मनके का कारखाना, अलंकृत हाथी, लिपस्टिक, तराजू, बैलगाड़ी, स्वान पीतल की बतख आदि।
बनावली
चक्राकार अंगूठी, नाक की बाली, कान की बाली, मछली पकड़ने का काटा, मिट्टी के खिलौने आदि।
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