ताम्रपाषाण काल प्राचीन भारत इतिहास (Chalcolithic Age Ancient Indian History) एक एक अंश है। यह भाग UPSC, SSC, Bank exam व कई अन्य परीक्षाओं के लिए अत्यंत महत्यपूर्ण है। इस पोस्ट में ताम्रपाषाण काल के बारे में विस्तार में वर्णन किया गया है। यह पोस्ट Ancient History notes in Hindi व UPSC notes in Hindi को ध्यान में रखकर बनायीं गयी है। आप किस अन्य टॉपिक पर पोस्ट चाहते है उस बारे में भी हमे कमेंट करके बता सकते है।
नव पाषाण काल में जीवन के विकास का बीज पड़ चुका था। हिम युग खत्म होने के फलस्वरूप हरे घास के मैदान की उत्पत्ति हुई और तदांतर में कृषि की उत्पत्ति भी हो गई। कृषि की उत्पत्ति से पशुपालन की प्रवृत्ति का भी उद्भव हुआ। कृषि और पशुपालन ने लोगो के जीवन को स्थाई करने का मार्ग प्रशस्त किया।
खानाबदोश जिंदगी व्यतीत करने वाले लोग अब सरकंडे के आयताकार और वृत्ताकार घर में रहते थे, पशुओं और मवेशियों को पालते थे। हालांकि एक जगह में नव पाषाण युग के लोगों ने मिट्टी के ईटों से बने घरों का प्रयोग किया।
मनुष्य पहले भेड़ और बकरी का पालन करना सीखा फिर अन्य जानवरों और मवेशियों का पालन भी किया। प्रथम पाला जाने वाला जानवर बकरी थी। नव पाषाण कालीन लोगों ने भारतीय उपमहाद्वीप के नवदाटोली नामक जगह में पहली बार गोशाला का प्रयोग किया।
हिम युग का अंत होने के बाद कृषि करने योग्य भूमि का विकास हुआ जिससे पशुपालन का मार्ग प्रशस्त हुआ। कृषि के विकास से शिकार करने की प्रवृत्ति में कमी हुई।
प्रथम उत्पादित अनाज गेंहू था हालांकि चावल के उत्पादन के भी साक्ष्य मिले थे। नवपाषाण युग समाप्त होते होते मानव को धातु का ज्ञान हो चुका था।
नव पाषाण युग के अंत के बाद ताम्र पाषाण युग आया। इसे ताम्रपाषाण काल इसलिए कहा जाता क्योंकि इस काल में मनुष्य ने पाषाण व ताम्र दोनों के ही उपकरण निर्मित किए। ताम्र पाषाण काल के लोग ग्रामीण समुदाय के निवासी थे और पहाड़ों और नदियों के किनारे व्यापक रूप से फैले थे।
भारतीय उपमहाद्वीप में ताम्र पाषाण संस्कृति के साक्ष्य दक्षिण पूर्वी राजस्थान, मध्य प्रदेश के पश्चिमी भाग, पश्चिमी महाराष्ट्र और दक्षिण पूर्वी भारत में मिले हैं।
इस आर्टिकल में हम ताम्र पाषाण युग के बारे में विस्तार से चर्चा करेंगे।
ताम्रपाषाण काल की समयसीमा 1800 ई. पू. से 1000 ई. पू. या 800 ई. पू. तक है ( आधुनिक अनुसंधान के आधार पर)।
दूसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व तक भारतीय उपमहाद्वीप के विभिन्न भागों में विभिन्न क्षेत्रीय संस्कृतियाँ अस्तित्व में आयीं। यह संस्कृतियाँ न तो शहरी थीं और न ही हड़प्पा संस्कृति की तरह थीं बल्कि पत्थर एवं ताँबे के औज़ारों का इस्तेमालं इन संस्कृतियों की अपनी विशिष्टता थी। अतः यह संस्कृतियाँ ताम्र पाषाण संस्कृतियों के नाम से जानी जाती हैं। ताम्र पाषाण युग हड़प्पा पूर्व संस्कृति का सूचक है।
NOTE:- भारत के कुछ हिस्सों में हड़प्पा संस्कृति के बाद ताम्र पाषाण संस्कृति का आरंभ हुआ।
ताम्र पाषाण के लोग प्रायः पत्थर और तांबे की वस्तुओं का इस्तेमाल करते थे लेकिन कभी कभी कांसा और लोहा का भी इस्तेमाल करते थे। ताम्र पाषाण युगीन लोग छोटे छोटे औजारों का प्रयोग करते थे। इनमे पत्थर की ब्लेड और धारदार हथियार थे। ये औजार प्रस्तर के बने होते थे। महाराष्ट्र के जोरवे और चंदौली में चिपटी, आयताकार तांबे की कुल्हाड़ी और छेनी पाए गए हैं।
दक्षिण भारत में पत्थर के ब्लेड के कारखाने विकसित हुए और यहा पत्थर की कुल्हाड़ी का प्रयोग देखने को मिला था।
वहीं कुछ बस्तियों में ताम्र वस्तुओं की बहुलता देखने को मिली है।
ताम्र पाषाण कालीन लोगों ने गेंहू और चावल का उत्पादन किया। गेंहू और चावल ताम्र पाषाण युग के मुख्य फसल थी। इसके अतिरिक्त उन्होंने बाजरे, मसूर, काला चना, हरा चना और मटर आदि फसलों का उत्पादन किया। इनामगांव से प्राप्त प्रमाणों से क्रमिक रूप में फसल उगाने, गर्मी तथा सर्दी की फसलों की कटाई तथा कृत्रिम सिंचाई की परंपरा का पता चलता है। काली कपास उगाने के लिए उपयुक्त जमीन की जुताई के संकेत इनामगांव के समीप ही वालकी में मिले बैल के कंधे की हड्डी से बने अर्द (हल के फल का आरंभिक रूप) से मिलते हैं।
कुछ बस्तियों के लोग बेर, अलसी, कपास और कई मोटे अनाजों का उत्पादन किया।
महाराष्ट्र के नवदाटोली के लोग लगभग सभी प्रकार के अनाजों का उत्पादन करते थे। दक्कन में कपास का उत्पादन करते थे और निचले दक्कन में कई तरह के मोटे अनाजों का उत्पादन करते थे।
पूर्वी भारत में विशेषकर बिहार और पश्चिम बंगाल में मछली पकड़ने के कांटे पाए गए है और चावल के अवशेष भी मिलते हैं।
ताम्र पाषाण कालीन लोग पशुपालन करते थे। वे गाय, भैंस, बकरी, कुत्ता और भैंस का पालन किए और हिरण, गाय और सूअर का शिकार किया। कई ताम्र पाषाण स्थलों से ऊटों के अवशेष मिले हैं। कृषि और पशुपालन करने वाले लोग दक्षिण – पूर्वी राजस्थान, पश्चिमी मध्य प्रदेश, पश्चिमी महाराष्ट्र और अन्य जगह के लोग थे। इनामगांव में समुद्री मछलियों की भी हड्डियों मिली हैं। यह मछलियाँ कल्याण अथवा हमद खाड़ी बंदरगाहों जो कि इनामगांव के समीपतम 200 कि.मी. पश्चिम की ओर स्थित थे से प्राप्त की गयी होगी।
NOTE:- ताम्र पाषाण कालीन लोग घोड़े से परिचित नहीं थे।
ताम्र पाषाण कालीन लोग विभिन्न प्रकार के बर्तनों का प्रयोग करते थे। जिसमे से एक को काला तथा लाल कहा जाता था। नवपाषाण काल की तुलना में ये अधिक परिष्कृत व सुडौल थे। इन बर्तनों में पशु-पक्षियों व फूल-पत्तियों के चित्र भी मिलते हैं जिससे स्पष्ट होता है कि चित्रकारी की कला भी विकसित होने लगी थी।
लाल और काले रंग के बर्तन ई. पू. 2000 के आस पास व्यापक रूप से विद्यमान थे। काले लाल रंग से पहिए गढ़े जाते थे।
NOTE:- मालवाई बर्तनों को सबसे समृद्ध माना जाता है।
मालवाईं बर्तन केंद्रीय और पश्चिम भारत में फैली मालवा ताम्र पाषाण संस्कृति से मिले हैं। काले लाल रंग के बर्तन राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार और पश्चिम बंगाल में पाए जाते थे।
महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और बिहार के लोग टोंटीनुमा पानी के बर्तन और स्टैंड वाली थाली और कटोरों का निर्माण किया। पूर्वी भारत के बर्तनों में ऐसी चित्रकारी कम ही मिलती है।
ताम्र पाषाण युग के लोग ताम्र और पत्थर के बहुत कुशल कारीगर थे। साक्ष्यों से पता चला है कि उन्होंने कम मूल्य के पत्थर के मोतियों का निर्माण किया। व्यापार वस्तु विनिमय के द्वारा के होता था।
मालवा में बुनाई वाले यंत्र की खोज हुई है जिससे स्पष्ट होता है कि ताम्र पाषाण युग के लोग कताई और बुनाई जानते थे।
महाराष्ट्र से सूती रेशम और सेमल रेशम से बने कपास सूत और रेशमी धागें मिले है।
इमामगांव में कुम्हार, लोहार, हाथी दात निकालने वाले , चूना निर्माता और टेराकोटा के कुशल कारीगर थे।
ताम्र पाषाण युग के लोगों ने हड़प्पा संस्कृति की तरह अलग कब्रिस्तान का इस्तेमाल नहीं किया।
ताम्र पाषाण युग के लोगों ने परलोक में इस्तेमाल के लिए मृतकों के साथ बर्तन और कुछ तांबे की वस्तुओं को कब्र में डालते थे। मृतकों को.दफन कर के विन्यास करना एक सामान्य रीति थी। वयस्क तथा बच्चे दोनों ही उत्तर-दक्षिण क्रम में दफनाए जाते थे। सर उत्तर की ओर होता था तथा पैर दक्षिण की ओर। वयस्क अधिकतर लिटा कर दफनाए जाते थे जबकि बच्चे कलशों में दफनाए जाते थे। यह कलश कभी एक और अधिकतर दो होते थे जिनका मुंह जोड़ कर उन्हें गड्ढे में लिटा दिया जाता। वयस्क और बच्चे दोनों ही गढ्ढों में दफनाए जाते थे जो घर के फर्श में खोदे जाते थे और कभी-कभी घर के आंगन में भी खोदे जाते थे।
महिलाओं की टेराकोटा मूर्तियों से पता चलता है कि ताम्र पाषाण युग के लोग माता देवी की पूजा करते थे। उन्होंने पूजा के लिए मिट्टी की कुछ बगैर पकी हुई नग्न मूर्तियों का इस्तेमाल किया।
माता देवी का एक चित्र इमामगांव में पाया गया है। इमामगांव में एक आरंभिक जोर्वे घर (1300 ईसा पूर्व) की खुदाई से देवी पूजा के प्रमाण मिले हैं। यहां पर एक कोने में फर्श के नीचे दबा अंडाकार मिट्टी का पात्र ढक्कन सहित मिला है। इस पात्र के अन्दर एक नारी प्रतिमा मिली है जिसके स्तन बड़े एवं लटके हुए हैं। साथ एक सांड की मूर्ति भी मिली है। इमामगांव से मिले प्रमाण तथा सभी नारी प्रतिमाओं से उर्वरता की देवी की पूजा के संकेत मिलते हैं। यह प्रतिमाएं (विशेषकर शीर्ष रहित प्रतिमाएं), एक मतानसार, सकम्भारी देवी (पूर्व ऐतिहासिक युग) जो कि कृषि उर्वरता की देवी थी तथा सूखे से छुटकारा पाने के लिए पूजी जाती थी, की प्रतीत होती है।
ताम्र पाषाण युग के स्थलों से पुरुष देवता के बहुत कम प्राप्त हुए है। दायमाबाद से प्राप्त ठोस ताम हाथी और भैंस की प्रतिमाएं आदि भी संभवतः धार्मिक महत्व रखते होंगे।
मालवा और राजस्थान में विशिष्ट ढंग के टेराकोटा साड़ों की मूर्तियां दर्शाती है कि साड़ एक धार्मिक पंथ का प्रतीक था।
ताम्र पाषाण युग के लोग पकी ईटो से परिचित नहीं थे। ई. पू. 1500 के आस पास गिलुंद में पकी ईट के इस्तेमाल के साक्ष्य मिले हैं। ज्यादातर घर फूस और टाट को लीप पोतकर बनाए जाते थे। अहर के लोग पत्थर के मकानों में रहते थे। मिट्टी की दीवारों तथा छप्पर की छतों वाले आयताकार एवं गोलाकार घर इन संस्कृतियों में सामान्य थे, यद्यपि विभिन्न क्षेत्रों में घर के आकारों में भिन्नता थी।
प्राचीन ताम्र पाषाण चरण में, इनामगांव में चूल्हे और वृत्ताकार, गड्ढेनुमा मिट्टी के घरों की खोज की गई है।
ई. पू. 1300-1000 में चार आयताकार और एक वृत्ताकार पांच कमरों वाला घर पाया गया है। यह बस्तियों के केंद्र में स्थित था ऐसा कहा जाता है की संभवतः यह बस्ती के प्रमुख का घर था। बस्ती के प्रमुख के पास निकटवर्ती भंडारग्रह में अन्य लोगों द्वारा प्रदत्त अनाज को भंडारित किया जाता रहा होगा।
महाराष्ट्र के कई जोर्वे बस्तियों में सामाजिक असमानताओं की झलक मिली है। यह द्वि- स्तरीय बस्तियों को दर्शाता है।
बस्तियों के आकार में अंतर देखने को मिलता है। इससे यह पता चलता हैं की बड़ी बस्तियों छोटी बस्तियों में शासन करती थी।
बड़ी और छोटी दोनो बस्तियों में समाज प्रमुख और उसके रिश्तेदार झोपड़ी में रहने वालो पर शासन करते थे।
इमामगाव में कारीगर पश्चिमी किनारे में रहते थे और समाज प्रमुख केंद्र में रहते थे। पश्चिमी में चन्डोली और नेवासा की कब्रगाहों में कुछ बच्चो के कंकाल मिले है जिनके गले में तांबे के हार थे वही कुछ कब्रों में बच्चो के कंकाल के साथ बस बर्तन मिले है।
तांबे के औजारों का इस्तेमाल करने वाले लोगों की संस्कृति को ताम्र पाषाण संस्कृति या ताम्र युग कहते हैं।
ताम्र पाषाण संस्कृति कई तरह की संस्कृतियों का मिश्रण था। वास्तव में ताम्र पाषाण संस्कृति ही हड़प्पा संस्कृति की द्योतक है।
ताम्र पाषाण संस्कृति को पूर्व हड़प्पा संस्कृति भी कह सकते हैं। ताम्र पाषाण बस्तियों में हड़प्पा सभ्यता की साफ झलक दिखाई पड़ती है।
लेकिन कुछ बस्तियां गैर हड़प्पन संस्कृति भी हैं जैसे- मालवा संस्कृति , जोरवे संस्कृति।
विस्तार क्षेत्र:– विदर्भ और कोंकण को छोड़कर पूरा महाराष्ट्र।
समयसीमा:– ई.पू. 1400-700
मध्य और पश्चिम भारत में ताम्र पाषाण संस्कृति ई.पू. 1200 या उसके बाद गायब हो गई केवल जोर्वे संस्कृति ई.पू. 700 तक जारी रही। यह गोदावरी की सहायक नदी प्रवरा के किनारे स्थित थी। जोर्वे संस्कृति मालवा संस्कृति से मिलती जुलती है लेकिन जोर्वे संस्कृति में दक्षिण के नव पाषाण संस्कृति के कुछ तत्व देखने को मिलते है।
यह एक ग्रामीण संस्कृति थी लेकिन इसकी कुछ बस्तियां जैसे दायमाबाद और इनामगांव शहरीकरण के चरण तक पहुंच चुकी थी। इमानगांव सबसे बड़ी ताम्र पाषाण कालीन बस्ती है।
विस्तार क्षेत्र:– दक्षिण पूर्वी राजस्थान
समयसीमा:– ई.पू. 2100-1500
केंद्र:- गिलुंद
जैसा कि अन्य ताम्र पाषाण संस्कृति में माइक्रोलिथिक उपकरण के इस्तेमाल के साक्ष्य मिले हैं अहर संस्कृति में कोई भी माइक्रोलिथिक उपकरण के इस्तेमाल के साक्ष्य नहीं मिले हैं। यह संस्कृति राजस्थान के बनास नदी के सूखे क्षेत्र में स्थित है अहर संस्कृति में पत्थर कुल्हाड़ियो या ब्लेड के कोई साक्ष्य नहीं मिले।
यहां खुदाई में तांबे की कुल्हाड़ी, चूड़ी आदि वस्तुएं मिली है। यहां पर एक कांस्य की चद्दर मिला हैं।
अहर में प्रारंभ से ही धातुओं को गलाया जाता था जिसके कारण अहर को ताम्बावती कहा जाता था।
गिलुंद में केवल तांबे के टुकड़े मिले हैं। इसमें पत्थर की ब्लेड का उपयोग होता था।
मालवा संस्कृति में कम मूल्य के मोतियों का निर्माण होता था। मालवा में बुनाई वाले यंत्र की खोज हुई थी।
अन्य
तांबे का सबसे बड़ा भंडार मध्य प्रदेश के गुन्गेरिया में है। दोआब के ऊपरी हिस्से में गेरूए रंग के कई बर्तन पाए गए है।
इस अवधि में गेरू रंग के बर्तनों की संस्कृति को ई.पू. 2000-1500 के बीच 8 भागों में रखा जा सकता है।
राजस्थान के खेतड़ी ताम्र क्षेत्र के सीकर झुनझुन इलाके में तांबे के तीर, भाले, बंशी, चूड़ियां और छेनियां आदि शामिल हैं। इनके आकार सिंधुघाटी की स्थलों के बराबर है।
ये स्थल गणेश्वर के नाम से जानते है और इसकी संस्कृति को गणेश्वर संस्कृति कहते हैं। गणेश्वर स्थल से ओसीपी भी मिली है ये ओसीपी का उपयोग ज्यादातर फूलदान के रूप में काले रंग से चित्रित हैं।
समयसीमा:– ई. पू. 2800 – 2200
गणेश्वर के लोग हड़प्पा को ताबें की वस्तुएं की आपूर्ति करता था। गणेश्वर के लोग आंशिक रूप से कृषि किंतु मुख्य रूप से शिकार पर निर्भर थे। इनका प्रमुख व्यवसाय ताम्र – वस्तुओं का निर्माण था। लेकिन ये नगरीकरण नही कर पाए।
गणेश्वर संस्कृति न शहरीकरण संस्कृति थी न ही ओसीपी या तांबा संग्रह की संस्कृति थी।
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